मानव वासना हूँ तेरी,
अंधी हूँ, बहरी हूँ,
नहीं दिखते मुझे
रिश्ते, नाते
उम्र, रंग या रूप,
मैं हूँ सबसे कुरूप।
मानव वासना हूँ तेरी,
नहीं दिखते मुझे
प्रकृतिक, अप्रकृतिक,
मर्यादाऐँ, अमर्यादाऐँ।
मानव वासना हूँ तेरी,
नहीं सुन सकती मैं
चीखेँ, मिन्नते या बद्दुयाऐँ,
हृदय भेदती सिसकियाऐ।
मानव वासना हूँ तेरी
नहीं सुन सकती मैं,
इंसाफ़ की दुहाई,
जमीर की सच्चाई,
हे मानव!
तेरी एकमात्र, मैं खाई, गहरी हूँ।
सच में, मैं अंधी हूँ, बहरी हूँ॥
- अभिजीत ठाकुर
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