मैंने एक उम्र गुजारी है तेरे खयालों में सिमट कर
आँगन के दाहिने कोने में इस हर शृंगार के पेड़ को देख रहे हो ...
बस वहीं महकती रहती हूँ मैं भी तुम्हारी यादों के इत्र में भीगी भीगी सी बैठी रहती हूँ रात के पहले पहर से भोर तलक ......
और
अपने प्यारे से मासूम दोस्तों को हमारी कहानियाँ सुनाती रहती हूँ ......... हाँ... हमारी प्रेम कहानियाँ !!
और जैसे ही तुम्हारा नाम मेरे होंठों को छूता है,
इन फूलों की खुशबू और जादुई हो जाती है......
मदमस्त टहनियाँ बलखाने लगती हैं ओर पत्ते हौले हौले झूमने ...
कभी कोई फूल मेरी ज़ुल्फ़ों को आ छेड़ता है...
कभी कुछ नन्ही कलियाँ मेरी हथेलियों को सजाती हैं ...।
और मैं शर्मा जाती हूँ....
हाया की लाली मेरे गालों पर और
तुम्हारी मोहब्बत का गुलाबी सुरूर मेरी बड़ी बड़ी आँखों क प्यालों में...
और मैं बेखुद सी
खुदकों संभाल ही नहीं पाती....
थिरक उठते हैं मेरे पांव...
और आँगन में गूँजती है तो बस मेरी बेसुध पायलों की पुकार .....
जो अपनी छुन छुन छुन छुन रुन झुन रुन झुन से चाँद को पतियां भेजती हैं ....
तुम्हें बुलाने को....
न जाने ये निष्ठुर चाँद तुम तक मेरी पायलों क सँदेसे लाता भी होगा या नहीं ??
लेकिन जब सोचती हूँ ....
तो शर्मा जाती हूँ...
रोम रोम लज्जा से सिकुड़ रहा हो जैसे....
मेरी चुनरी भी किसी नई नवेली दुल्हन सी घबरा के मेरे तन से लिपट जाती है .....
हाय ! जाना कैसी कैसी अनुभूतियाँ करता है तुम्हारा प्रेम....
और हर एहसास के साथ एक
मीठी मीठी टीस दे जाता है।
.
.देखो ना .....चाहती हूँ की इन हारशृंगार के फूलों से तुम स्वयं मेरा शृंगार करो....
सोचती हूँ तुम्हारी आँखों में अपनी नज़रों से कुछ ग़ज़लें लिख दूँ , कुछ शेर कहूँ ,
कुछ गीत तुम्हारे होंठों पर उतार दूँ..
और बस सोचते सोचते ही शर्मा जाती हूँ.....
तरसती हूँ तुम्हारे आलिंगन में सिमट कर ....धीमे धीमे ....
इस प्रेम नृत्य में .......
खद से तुम तक....
और तुम से उस महाशून्य तक का सफर करने को
कभी तरसती हूँ ...
कभी बरसती हूँ....
और जब भीग जाती हूँ तुम्हारे एहसास की बारिश में तो फिर
शर्मा जाती हूँ.....
की तुम छुपके कहीं मेरी अठखेलियाँ देख रहे हो जैसे ...
जैसे अभी तुम आओगे और मेरी पायलों को चूम लोगे ....
जैसे मेरे कानों पर अपने होंठ रखकर धीरे से मेरा नाम लोगे ...
और मैं कंपकपाती सी , शरमाती सी.... तुम्हारे सीने से लिपट जाऊँगी....
सोचती हूँ तो शर्मा जाती हूँ...
और आखिर शर्माना हो भी क्यूँ न.....
सारा कुसूर तुम्हारे नाम का ही तो है...
तुम्हारा नाम है ही इतना जीवंत...
मेरी भावनाओं को आत्मा देने वाला....
मेरे लफ्जों को इश्क का लिबास देने वाला .....तुम्हारा नाम ही तो है !
मेरी देह को प्राण देने वाला तुम्हारा नाम ही तो है......
मैं यूं ही तो नहीं कहती हूँ न 'प्राणाधार' तुम्हें
अनाइडा भारद्वाज (मैगी), मेरठ
No comments:
Post a Comment