बना था बसेरा कच्ची डालों पर
ओस कण बिखरे थे पातों पर,
लहूलुहान सुबह थी,
पंख बिखरे थे , विदीर्ण शव!
मौन हवा परिंदे की इस दशा पर
कौन था पहाड़ जो तुम पर टूटा!
पूछ रहा एक अन्य वो
किसे नही सुहाता था हमारा घर,
करुण क्रंदन ह्रदय भेदी! तुम्हारा रुदन
पूछ रहा ओ! गगन क्या तुम अपराधी
को जानते हो? कहो पहचानते हो?
श्रधंजलि अर्पित तुम्हें किंतु,
सृष्टि क्यों मौन मानुषी निष्ठुरता पर,
हाँ! बना था बसेरा कच्ची डालों पर
ओस कण बिखरे थे पातों पर!!
अभिजीत ठाकुर
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