तुझसे तो नही पर तेरे
शहर से रिश्ते गहरे क्यूँ हैं,
भटक कर दर बदर
आज फिर यहाँ ठहरे क्यूँ हैँ।
सुकून की बस्ती थी यहाँ
कभी, अब हर गाल पे
अश्क सूखे क्यूँ हैं।
खुली गलियों में भी था
भीषण गर्मी का अहसास,
हवाओँ पर यूँ पहरे क्यूँ हैँ।
पहले लगता था
हर चेहरा तेरे जैसा!
आज हर शख्श नकाबो
पे नकाब पहने क्यूँ है।।
अभिजीत ठाकुर
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