वस्त्र उघाड़ जब चलती हो!
खूब सजती, संवरती हो!!
ना जाने तुम, क्योँ इतनी कुंठित हो, कौन बताये?
नग्नता और उन्मुकता सौँदर्य का पैमाना नहीं!
याद रहे जो भड़काती हो
वसना किसी और की,
उसका तुम्हें कोई अंदाजा
नही!!
तुम्हेँ देखने वाले, क्या से क्या न सोचते, इसका
कोई ठिकाना नही!!
तुम्हेँ देख जो मंद मंद मुस्काते, बाद में औरोँ
को तुम्हेँ रंडी या छिनाल बताते!
स्वयं चाहेँ कितने कामुक
और हो अश्लिल तुम्हेँ निगाहों से सदा चाहते तुम्हेँ
लील! कौन बताये नग्नता सौँदर्य का पैमाना
नहीं!
अभिजीत ठाकुर
बहुत खूब... सच्चाई को इतने सुंदर शब्दों में कहना इतना आसान नही था , शायद परंतु आपने बना दिया !
ReplyDeleteसमर्थन और उत्साहवर्द्धन के लिये शुक्रिया!
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