कलम हूँ, मैं अब
वध करना चाहती हूँ,
जो माँ भारती के आँचल
को छेदे, भेदे, ऐसे कायरों
की छाती पर खंजर सा
चुभना चाहती हूँ।
जो बाहर से करे या
भीतर से करे प्रहार,
ऐसे दैत्योँ का निर्मम
संहार करना चाहती हूँ।
राजनीति के दंभ में,
या भगवा के रंग में,
बन जनसेवक, धुर्तता
और धनलोलुपता के
पक्के जो अनुयायी हैँ।
ऐसे आदम खोरोँ के
नर मुंडोँ पर, मैं तांडव,
नर्तन करना चाहती हूँ।
गगन सदृश्य है लक्ष्य मेरा,
मातृभूमि के प्रेम पगे हर
हृदय मे, नव क्रांति,
पावन गंगाजल से
लिखना चाहती हूँ।
हे! माँ भारती के वीर
सपूतोँ आओ साथ मेरे,
मैं 'भारत' की रग रग में
इक नया इंकलाब
लिखना
चाहती हूँ।
अभिजीत ठाकुर
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