घनघोर सावन,
कई दिनों से बरसते
बादल, आज थम से
गए थे।
मिट्टी की सौधीँ खुशबू,
से अल्हादित वो भीगी
सी सांझ, झिगूंर के सुमधुर
स्वर बज से रहे थे।
दीये की मध्यम लौ,
ठंडी बयार के संग जलती
फफकती, ईर्द गिर्द कितने
ही पतंगे मरते रहे थे।
चुल्हे का गाढ़ा धुंआ,
मुट्ठी भर चावल,
उबलता अधान और
बेवस ममता की गोद
और बिलखते नादान,
कहीं बेवसी और कहीं भूख,
भीगी आँखोँ से, पकते रहे थे।
कमर तक लबालब कीचड़,
गलियोँ में हैं घोर नर्क,
द्वार पर बैठे किसान,
लाचारी वश मन ही मन,
सूदखोरोँ से फिर मन्नते
करते रहे थे।
इस दफे भी भूख,
इज्जत, इंसानियत,
हाड़ तोड़ मेहनत से
पैदा किये आनाज, खेत
और मकान बिकते रहे थे।
अभिजीत ठाकुर
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