मुफ़लिसी का
दौर,हर रिश्ते का
मुखौटा हटाता
चला गया।
वो मेरा अपना
दौड़ कर,दुर
बहुत दुर फासला
बनता चला गया।
मैं चीख चीख उसे
बुलाता चला गया,
ना जाने कब
से अँधेरे सा था ये मकां,
आज दरो दीवार
पर उनके, रोशनी मैं
सजाता चला गया।
बो दिये जिसने
ये अन्तहीन स्याह से
अंधेरे मुक्ददर
में मेरे, आज उसी
हमनवा की याद मेँ
दिल को जलाता
सुलगाता चला गया।
मुस्करा कर वो अहिस्ता से
मुझे भुलाता चला गया।
अभिजीत ठाकुर
दौर,हर रिश्ते का
मुखौटा हटाता
चला गया।
वो मेरा अपना
दौड़ कर,दुर
बहुत दुर फासला
बनता चला गया।
मैं चीख चीख उसे
बुलाता चला गया,
ना जाने कब
से अँधेरे सा था ये मकां,
आज दरो दीवार
पर उनके, रोशनी मैं
सजाता चला गया।
बो दिये जिसने
ये अन्तहीन स्याह से
अंधेरे मुक्ददर
में मेरे, आज उसी
हमनवा की याद मेँ
दिल को जलाता
सुलगाता चला गया।
मुस्करा कर वो अहिस्ता से
मुझे भुलाता चला गया।
अभिजीत ठाकुर
No comments:
Post a Comment