ख्वाहिशेँ
कब पूरी होती हैँ।
बेशक,
महल बने बिना ही
खंडर होती हैं॥
हद से ज्यादा
भरोसे से जिंदगियाँ।
अक्सर,
जर्रजर्र होती हैं॥
यहाँ दिन और
रात एक से हैं।
शायद,
कल उजाले खुशनुमा होंगे,
उनीदें से भूखे सोते हैं॥
जरा से मशरूफ़ हैं
तो भी, गौर फरमाइये,
ओ खुदाया!
बड़े बेरहम हैं ये लोग
कचरे में बेटियाँ तक फेँक देते हैं
अभिजीत ठाकुर
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