इक मशाल की रोशनी बहुत है
माना दूर तक अंधेरा बहुत है!
होगा अनजान जमघट राहों का
मगर मेरा हौसला भी बहुत है!
कल मत पूछना मैं कहाँ हूँ
तुम्हारा खुद से फासला बहुत है!
मैं फिर आउंगा इक गज़ल लिखने
शहर में मोहब्बत का आसरा बहुत है!
नज़्म की रोशनी हर बार कहती है
ज़रा ठहर यहाँ अबके अंधेरा बहुत है!
अभिजीत ठाकुर
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