दशों दिशाएं को भी छलकर
मिला नहीं गंतव्य सतत चलकर!
भस्मीभूत हुआ जीवन मृदु कितना,
रहा अनोखा विस्मय ऊंचा हिम जितना!
जतन समग्र यदि कर पाते
तो राह नई तुम अबतक पा जाते!
बोधगम्य नहीं सिर्फ विचरण
मनुज! क्षम्य है कलुषित आचरण!
पाप एक ही घेर रहा है
साक्षी के बदले साक्ष्य बटोर रहा है!
तू रुक! ठहर तनिक...
गंतव्य यहीं हैं, पर तू फिसल रहा है!
अभिजीत ठाकुर
No comments:
Post a Comment